भारत कोई धर्मशाला नहीं: सुप्रीम कोर्ट ने श्रीलंकाई तमिल शरणार्थी की याचिका खारिज की

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक श्रीलंकाई तमिल शरणार्थी द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया, जिसमें उसने सजा पूरी होने के बाद भारत से निर्वासन को चुनौती दी थी। अदालत ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि भारत कोई ‘धर्मशाला’ नहीं है, जहां पूरी दुनिया के शरणार्थियों को शरण दी जाए।
यह मामला मद्रास हाईकोर्ट के उस आदेश से जुड़ा है जिसमें अदालत ने कहा था कि श्रीलंकाई तमिल नागरिक को, जो यूएपीए मामले में दोषी ठहराया गया था, सजा पूरी होते ही देश छोड़ना होगा। इसी आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी।
पीठ की कड़ी टिप्पणी
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने सुनवाई के दौरान स्पष्ट किया कि भारत पहले से ही 140 करोड़ की जनसंख्या से जूझ रहा है और यह कोई वैश्विक शरणार्थी केंद्र नहीं बन सकता। न्यायमूर्ति दत्ता ने याचिकाकर्ता के वकील से पूछा, “यहां बसने का आपका क्या अधिकार है?” इस पर वकील ने जवाब दिया कि याचिकाकर्ता एक शरणार्थी है और उसकी पत्नी और बेटा भारत में रह रहे हैं।
पीठ ने दो टूक कहा कि अनुच्छेद 19 के तहत भारत में बसने का मौलिक अधिकार केवल भारतीय नागरिकों को प्राप्त है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 21 के तहत याचिकाकर्ता की स्वतंत्रता जरूर प्रभावित हुई थी, लेकिन कोई मौलिक अधिकार नहीं छीना गया।
जान का खतरा, फिर भी राहत नहीं
वकील ने दलील दी कि याचिकाकर्ता को अपने देश श्रीलंका में जान का खतरा है और वह बिना किसी निर्वासन प्रक्रिया के बीते तीन सालों से हिरासत में है। इस पर न्यायमूर्ति दत्ता ने कहा कि अगर उसे खतरा है तो वह किसी अन्य देश में शरण ले सकता है।
पृष्ठभूमि में क्या है मामला?
याचिकाकर्ता को वर्ष 2015 में दो अन्य लोगों के साथ गिरफ्तार किया गया था। उन पर आरोप था कि वे प्रतिबंधित संगठन एलटीटीई (LTTE) के सदस्य हैं। यूएपीए के तहत उन्हें दोषी ठहराते हुए ट्रायल कोर्ट ने 10 साल की सजा सुनाई थी। बाद में मद्रास हाईकोर्ट ने सजा घटाकर तीन साल कर दी, लेकिन यह भी कहा कि सजा पूरी होते ही उन्हें देश छोड़ना होगा।
वकील ने कोर्ट को बताया कि याचिकाकर्ता 2009 में श्रीलंका में एलटीटीई के लिए युद्ध लड़ चुका है, जिसके चलते उसे वहां जान का खतरा है। साथ ही, उसकी पत्नी और बेटा गंभीर बीमारियों से जूझ रहे हैं।
न्यायपालिका का सख्त रुख
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का रुख यह दर्शाता है कि भारत अपनी सीमाओं और संसाधनों के प्रति सजग है और बिना नागरिकता या कानूनी अधिकारों के किसी विदेशी को स्थायी रूप से बसने की अनुमति नहीं दी जा सकती। कोर्ट के मुताबिक, किसी भी देश की संप्रभुता और संसाधनों का सम्मान करते हुए शरण नीति तय की जानी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से यह स्पष्ट संदेश गया है कि भारत की न्यायपालिका मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशील तो है, लेकिन देश की सुरक्षा, जनसंख्या दबाव और कानूनी सीमाओं को प्राथमिकता देती है। शरणार्थियों के मामलों में भी अब और अधिक कड़ी और स्पष्ट नीति अपनाने की जरूरत महसूस की जा रही है।