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“टिंचरी माई : द अनटोल्ड स्टोरी” – पहाड़ की महिला की अशिक्षा और नशे के खिलाफ जंग

फिल्म टिंचरी माई : द अनटोल्ड स्टोरी एक ऐसी कहानी है जो उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में आज भी कहीं न कहीं लड़ी जा रही है। टिंचरी माई की लड़ाई, यानी पहाड़ में अशिक्षा और नशे के खिलाफ एक महिला की जंग। इसे लड़ना आज भी उतना ही प्रासंगिक और जरूरी है जितना पिछली सदी में, 1965 से 1977 के कालखंड में।

यह फिल्म आज की युवा पीढ़ी को पहाड़ की महिलाओं के संघर्ष से भी रूबरू कराएगी। फिल्म उत्तराखंड की प्रसिद्ध सामाजिक आंदोलनकारी टिंचरी माई के जीवन से प्रेरित है और उनके संघर्ष, त्याग, दुःख, हिम्मत, जुझारूपन और सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई की कहानी को आधार बनाकर लिखी गई है। फिल्म का कथानक नया और समकालीन है। फिल्म के कथानक के अनुसार मेघा माधुर दिल्ली की एक आधुनिक युवा, एक टीवी चैनल की पत्रकार है। चैनल द्वारा उसे असाधारण काम करने वाली अनजान महिलाओं को खोजकर उन पर आलेख तैयार करने का निर्देश मिला है। उसे टिंचरी माई का नाम सुझाया गया है। इसमें खास रुचि न होते हुए भी वह उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में जाती है। उसे टिंचरी माई के अनेक दुःखभरे किस्सों व साहस भरे संघर्षों की कहानियां सुनने को मिलती हैं।

टिंचरी माई यानी ठगुली देवी का जन्म पौड़ी गढ़वाल के थलीसैंण ब्लाक के मंज्यूर गांव में हुआ था। छोटी उम्र में ही उनके सिर से माता-पिता का साया उठ गया था और 13 साल की उम्र में उनका विवाह उनसे 11 साल बड़े गवांणी गांव के गणेशराम नवानी से हो गया। फौजी गणेशराम उन्हें अपने साथ क्वेटा ले गए। वे द्वितीय विश्वयुद्ध में शहीद हो गए, वह अकेली रह गई। वह अपने दो बच्चों को लेकर गांव लौटी तो कुछ समय बाद हैजे से उनके दोनों बच्चों की मृत्यु हो गई। परिवार और समाज ने न केवल उनका तिरस्कार किया, बल्कि इतना प्रताड़ित किया कि उन्होंने घर त्याग दिया और उस समय के पिछड़े हुए क्षेत्र कोटद्वार भाबर में आकर जोगन बन गई। अब उनके जीवन की नई लड़ाई शुरू हुई, सामाजिक सरोकारों को। टिंचरी माई ने स्वयं शिक्षित न होते हुए भी समाज में अशिक्षा को दूर करने के लिए मोटाढाक कोटद्वार में स्कूल खोला, सिगड्‌डी गांव में पीने के पानी की लड़ाई लड़ी और टिंचरी जैसी बुराई के खिलाफ एक सामाजिक आंदोलन चलाया। जिसमें उन्होंने टिंचरी बेचने वाले व्यापारी की दुकान को आग लगा दी।

टिंचरी माई को जानने के लिए मेघा का शोध उसे हर दिन नई सच्चाइयों से रूबरू कराता है, तो वह उसमें और गहरे उतरती है। उसे लगता है कि यह सब तो आज भी हो रहा है और टिंचरी माई की लड़ाई आज भी लड़ी जा रही है। इसे लड़ना आज भी उतना ही प्रासंगिक और जरूरी है जितना पिछली सदी में, 1965 से 1977 के कालखंड में। उसके साथ वही सब घटता है जो टिंचरी माई के साथ घटा था। माई की कहानी से उसे प्रेरणा और शक्ति मिलती है। दिल्ली में पली-बढ़ी मेघा भी टिंचरी माई की ही तरह समाज के लिए समर्पित भाव से कार्य करती है। फिल्म समाज की पितृसत्तात्मक बुनावट, स्त्री सशक्तीकरण और सामाजिक बदलाव जैसे सवालों को उठाती है।

लेखक लोकेश नवानी की कहानी को निर्देशक केडी उनियाल, निर्माता नवीन नौटियाल ने दमदार तरीके से पर्दे पर उतारा है। फिल्म की शूटिंग बांठ गांव, टिहरी, चोपता, उखीमठ, धारी देवी, मलेथा, देवप्रयाग संगम, बुग्गावाला, ज्वाल्पाजी, गवांणी तथा देहरादून के झंडाजी महाराज, गांधी पार्क, मालदेवता, राजपुर मार्ग तथा अन्य अनेक स्थानों में हुई है। फिल्म में 70 से अधिक कलाकारों ने अभिनय किया है।

 

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