
देहरादून: उत्तराखंड की सड़कों को जोड़ने वाले पुल अब राज्य की कमजोर कड़ी बनते जा रहे हैं। पिछले पांच वर्षों में 37 पुल धराशायी हो चुके हैं, जबकि 36 अन्य पुल ऐसी स्थिति में हैं कि किसी भी समय हादसा हो सकता है। ये पुल पहाड़ी जिलों में लोगों की जीवन रेखा हैं, लेकिन निरीक्षण और रखरखाव की कमी से लगातार खतरे में हैं।
पुलों के निरीक्षण, मरम्मत और पुनर्निर्माण पर करोड़ों रुपये खर्च किए जा चुके हैं, फिर भी स्थिति जस की तस बनी हुई है। कई मामलों में पुलों की गुणवत्ता को लेकर गंभीर सवाल उठे हैं, लेकिन जिम्मेदारी तय करने और कार्रवाई की प्रक्रिया अक्सर फाइलों में ही दब जाती है।
लोक निर्माण विभाग (PWD) और ग्रामीण निर्माण विभाग के रिकॉर्ड बताते हैं कि कई पुलों की आयु समाप्त हो चुकी है, जबकि कुछ पुलों को बिना तकनीकी जांच के ही मरम्मत कर उपयोग में लाया जा रहा है। इससे हादसे की संभावना और बढ़ गई है।
विशेषज्ञों का कहना है कि राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में भौगोलिक परिस्थितियां और लगातार भूस्खलन जैसी प्राकृतिक चुनौतियां पुलों की स्थायित्व अवधि को प्रभावित करती हैं। लेकिन वास्तविक समस्या निर्माण के दौरान गुणवत्ता नियंत्रण की कमी और नियमित मॉनिटरिंग न होने की है।
राज्य सरकार ने हाल ही में पुलों की सुरक्षा को लेकर पुनः सर्वे करने के निर्देश दिए हैं। इसके तहत प्रत्येक जिले में जर्जर पुलों की सूची तैयार की जा रही है। रिपोर्ट के आधार पर जल्द ही कमजोर संरचनाओं को ध्वस्त कर नए पुलों के निर्माण की योजना बनाई जाएगी।
स्थानीय लोगों का कहना है कि कई पुलों पर रोजाना हजारों लोग और वाहन गुजरते हैं, जिससे खतरा और बढ़ जाता है। लोगों ने मांग की है कि सरकार जर्जर पुलों की तुरंत मरम्मत या पुनर्निर्माण कराए, ताकि किसी बड़ी दुर्घटना से बचा जा सके।
राज्य के दूरस्थ इलाकों में ये पुल केवल आवागमन का साधन नहीं, बल्कि जीवन से जुड़ी जरूरत हैं। ऐसे में इनकी सुरक्षा और गुणवत्ता सुनिश्चित करना सरकार और जिम्मेदार विभागों के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।